
साहित्य क्या है?
अपने ही हुनरमन्द हाथों से बनाई
स्वप्न धरा को छोड़ छाड़ कर
दौड़ते भागते
पसीने से तरबतर प्रवासी मजूर
मजूर के थके पाँव
पाँवों के छाले
छालों से रिसते लहू
लहू के रंग की
जिद
और उस जिद के भीतर ही भीतर
कण कण कर पिघल रहा
आदमीं और उसका दुनिया जहान
ही तो है साहित्य।
सड़क किनारे फुटपाथ पर
निढ़ाल पड़ी माँ की सूखी छातियाँ चिचोड़ती
दुधमुंही बच्ची
बच्ची की आँखों में
चलता फिरता
कभी हँसता
कभी कभी बिना आँसू रोता आसमान
महाकाव्य का असल भावार्थ
और
उसका राग है।
सिंहासनों के टक्कर से उपजी
मन के कानों में
आहिस्ता आहिस्ता
आग घोलने वाली
आवाज़ के भीतर का सच
सच के चारो ओर घिरे
चमकदार चांदनी से सौ सौ झूठ
और उन झूठों के भीतर
बहुत दूर तक जाती
वर्तुलाकार सुरंग के अन्तिम छोर पर विस्तारित
निष्ठुर अट्टहास के दुरन्त से
आदमी का घर
तलाश लेने का दुस्साहस ही
उपन्यास रस की व्यंजना है।
ओमप्रकाश मणि,कैम्पियरगंज, गोरखपुर।