रिस्ते मर जाते हैं धीरे धीरे।
सबसे पहले मरता है लगाव,
कम होता जाता है प्रभाव।
थमती जाती हैं बातें,
जड़ होती जाती हैं रातें।
ठंढा पड़ता जाता है,
दिल में जल रहे प्रेम का अलाव।
कोई करीबी,दे जाता है, जख्म,घाव।
फिर रुकना,मिलना ,ठहरना,,
कुछ मायने नहीं रखता।
सब कुछ बेमानी सा,
वही खास आम होने लगता है।
मन मे बसने वाले के लिए,
मन के द्वार पर जड़ दिए जाते हैं,
असंख्य कभी न खुलने वाले ताले।
यूँ भी तो होती है,
किसी रिस्ते की बेवक़्त मृत्यु।
एक उस राह को बदल
चल पड़ता है, दूसरी राह
नई मंज़िल की तलाश में,
किसी और दिशा में।
और दूसरा ढोता है,
तमाम उम्र उन यादों को,
किस्तों में चुकाते हुए,
अपनी भावनाओं की सारी जमा पूंजी
लुटा कर भी नहीं चूकती कभी वो क़िस्त।
और उपजती रहती हैं,
अनगिनत प्रेम कविताएं।
संभावनाएं तलाशते हुए,
पत्थर पर फूल उगाने के,
मासूम रिस्तों को बचाने के।
कुछ कविताएं यूँ भी तो
जन्म लेती हैं न
रिस्तों के मरने के बाद।
शोभा किरण
जमशेदपुर
झारखंड

जमशेदपुर
झारखंड