कवि संदीप शजर

दूधवाला

एक समय था कि हर घर मे पशुपालन होता था तो दूध भी घर-घर होता था । धीरे-धीरे यह प्रचलन कम हुआ तो पड़ोसियों से दूध लेने लगे। जब मुहल्ले में ही पशु नहीं तो दूध कहाँ से आए!! अब हुई एक व्यक्ति की एंट्री। जिसका नाम है दूधवाला
। साथ ही दूध में मिलावट का दौर भी शुरू हुआ। शुद्धता के चक्कर मे कुछ लोग तो दूर-दूर तक दूध लेने भी जाने लगे ताकि सामने शुद्ध दूध ले सकें। पैकेट वाला दूध तब प्रचलन में नहीं था। अब जिसके पास जाने का समय न था तो दूधवाले से ही दूध लेना मज़बूरी रही। लेकिन सबकी यह तलाश जारी रहती कि किसी तरह शुद्ध दूध मिल जाए।


हमारे गुरुजी भी इस तलाश में रहते कि कहीं से शुद्ध दूध मिल जाए और गुरुपत्नी जी भी पीछे पड़ी रहतीं। इस कारण कई दूधवाले बदले गए। सौभाग्य से गुरु जी को एक ऐसा व्यक्ति मिला जोकि पशुपालन करता था, दूध बेचता था और अपने पशुओं का दूध घरों में भी देता था। हाँ, वह थोड़ा मँहगा दूध देता था। सिलसिला शुरू हुआ तो वह कई साल तक निरंतर दूध उपलब्ध कराता रहा।
गुरुपत्नी जी ने एक दिन उसे कहा- भैया! अब आप दूध में पानी मिलाने लगे हो। यह ठीक बात नहीं है। यह सुनकर वह कुछ न बोला और चुपचाप चला गया। अगले दिन दूधवाला नहीं आया तो लगा कि बीमार होगा या कहीं कोई काम आ गया होगा लेकिन जब वह एक सप्ताह तक नहीं आया तो गुरु जी ने सोचा कि घर जाकर पता किया जाए कि क्या बात है? तब लैंडलाइन फोन भी सबके घर कहाँ होते थे! पूछने पर उसने एक पर्ची में लिखा बकाया हिसाब पकड़ा दिया और कहा कि गुरुजी आपका मन करे तो बकाया दे देना। बस अब मैं दूध नहीं दे पाऊँगा। क्या बात हुई? यह तो उसने नहीं बताया लेकिन घर जाकर सारी बात खुली । बहुत मनाने की कोशिशें हुई। यहाँ तक कि गुरुपत्नी जी ख़ुद उसके घर गईं और ग़लती के लिए माफ़ी भी माँगी लेकिन दूधवाला टस से मस न हुआ। उसने फिर कभी गुरुजी के घर दूध नहीं दिया।

©संदीप शजर

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