बात उन दिनों की है जब टीचिंग के दौरानशुरू-शुरु में मैं बच्चों को संभालने में असहज महसूस करती थी। बच्चे हमें परेशान करते थे औरमैं खुद बच्ची बनकर प्रिंसिपल सर को परेशान किया करती थी। उस वक्त हमनें बच्चों पर एक कविता लिखी थी। बच्चे मन के हो तुम सच्चे करते हो परेशान बहुत होंठों को गोल-गोल बना बहाने ऐसे बनाते हो मेरे अधरों से मोती गिरने लगते है झूठ बोला करते हो ऐसे जैसे हो मौसम की कोई भविष्यवाणी बातें तेरी नदी के तट पर बहने वाली ठंडी-ठंडी हवाओं जैसी तेरे निश्छल मन के आगे हाय! झूठ भी शरमा जाती है कहो सम्हालूं तुम्हें तो कैसे सम्हालूं पिटाई करूँ तोकानून की नजरों में अपराधी कहलाऊँ प्रेम से समझाऊँ तोसर पर तांडव करने लगते हो साँप -छछूंदर सी गति बनी है प्रश्नचिन्ह से घिरी हुई हूँ सच कहुँ तो जहाँ तक संभव होता था मैं बच्चों को मारती या डाँटती बिल्कुल भी नहीं थी। हाँ, बहुत परेशान करने पर कभी-कभार डाँट देती या फिर हल्के से एक थप्पड़ लगा देती थीऔर वो बच्चे इस कदर रोने लगते कि हमें पर्स से चाकलेट निकाल कर देना पड़ता थाबच्चे खाकर हँस देते थे। कभी-कभी चाकलेट पाने के लिए वो लोग झूठ का भी रोना रोते थे पर एक चीज पता हैजब हम किसी कारणवश विद्यालय नहीं जा पाते थेतो अगले दिन विद्यालय जानेपरवो बच्चे हमसे सवाल किया करते थे- कल आप क्यों नहीं आई थी मिस ? बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था। उन मासूमों की आँखों मेंनिश्छल प्रेम झलकता था/जहाँ गुजार देना चाहती थी मैंअपने जिंदगी के सबसे हसीन लम्हें। मैं दर- बदर जिंदगी को ढूँढा करती थीऔर वो जिंदगी हमें कभी उन मासूमों की आँखों मे मिलती तो कभी कलम के नीचे। एक बार एक शिक्षक बोले-मिस, आप डाँटती नहीं है बच्चों को? कितना बदमाशी करते हैं ये सब/एक छात्र जिसका नाम अभिनव था। बहुत ही शरारती बच्चा था। उसने कहा- सर, मिस नहीं मारती है। मारते वक्त उन्हें दया आ जाती है। अरे बच्चे क्या? हमारे घर के कबूतर और डागी(कुत्ते) भी हमसे नहीं डरते हैं/वो कहते हैं नाप्रेम में इंसान का हिंसात्मक होनाबहुत ही मुश्किल होता है। रिंकी झा मधुबनी ,बिहारशिक्षक दिवस की शुभकामनाएंAttachments area |

Displaying Screenshot_2020_0906_185529.png.