” प्रवासी मजदूर ” शीर्षक
जिस राह से गुजरे
वहां लिख गए रोटी का इतिहास
रक्त की बूंदें
जहाँ भी गिरीं
प्रकीर्ण हो गईं
गरीबी रेखाएँ पर खींची
पटरियां कभी नहीं पटती
कि वहीं पट गई अंधेरे में भूख और प्यास

पीठ पर जब लादा गया वजन
उम्रभर बोझ से
झुके रहे कांधे
अब झुक रहे हैं
गठरियों के वजन से
शहर से गाँव
गाँव से नदी
नदी से जमीन
जमीन से भूख
कि पाते ही द्वार
लुढ़क गए
वे सोचते रहे रात-दिन
मंदिरों और मस्जिदों के बारे में
भरते चले गए खजाने
श्रम की आंते सिकुड़ती गईं
सियार मार रहे थे झपट्टे मार रहे थे रोटी पर
अंगीठी जल रही थी वे सेंक रहे थे केवल अपने अपने हिस्से की रोटी
कि इस समय का सबसे बड़ा मुहावरा है
वहीं अघाई भूख
दान -धर्म से दूर
जो आए गाँव
शहर रोटी की तलाश में
जो दिनों दिन
घट रहे थे भीतर ही भीतर
बहुत कम थी उनकी जरूरतें
बहुत छोटे छोटे सपने थे तीज -त्योहार के
टिक गए थे
दीवारों से
छत नहीं थी उनके पास
सिर छुपाने को
उसारे नसीब हुए
उन्हीं से चिपके रहे दस – दस
सर्द रातों की ठिठुरन
पानी की मार झेलती रही पीठ
गीले बदन कारखानों, फैक्ट्रियों ,
बिजली के तार पर
वक्त बेवक्त दौड़ती जिंदगी ने आंखों के सम्मुख रखें
पीछे मुड़कर नहीं देखा अपने घर-संसार को
वाग्मिता में निपुण होकर
चंद्रमा – सी रोटी को थाली में उतारते रहे
जिस राह गुजरे
वहां तपती रेत हो या कांच की चुभन
अर्जुन की आंख में रखीं थी तीर सी पैनी नोक ने
लक्ष्य को बेधा
मृत्यु को परास्त करते हुए
जीवन की यात्रा की तरफ
रोटी महज रोटी नहीं थी उनके लिए
थी भरी पूरी जिंदगी
जब महामारी की चपेट में आए
निकल गए गठरी सिर पर रखकर
यात्राओं को ,जो लीक से हटे
खतरों से भर गया दामन
सड़कें न मिलीं, न चौराहे मिले
न भीड़ थी,
पसरे थे दूर तलक सन्नाटे
उनकी यात्रा में
नन्हें -नन्हें बच्चों की भूख ,प्यास
और थकान ने
तोड़ दिया धैर्य को
समस्त नियम कायदे कानून से ताक पर रख
पटरी पर सो गए निंद्रामग्न
रोजाना
प्रवासी है उनकी भूख
डॉ .आशा सिंह सिकरवार अहमदाबाद