साध्य जब होता परम पवित्र,
सत्य का मिल जाता है साथ।
वहाँ दुर्गम गिरि कानन कुंज,
स्वयं ही दे देते हैं पाथ।।
अधिक पड़ता जब कभी दबाव,
टूट जाता तब काठ कठोर।
किन्तु होता जिसमें कुछ लोच,
उछल कर आँखें देता फोड़।।
प्रबल अत्याचारों से त्रस्त,
सहन जब कर न सके अन्याय।
विरोधी गूँज उठे स्वर सद्य,
घृणित जीवन का मोह विहाय।।
हमारे घर में हम असहाय,
सतत संत्रास और अपमान।
विश्व गुरु रहे सदा हम यहाँ,
हमी ने दिया विश्व को ज्ञान।।
त्याग नश्वर जीवन का मोह,
जाग जब उठा आत्म सम्मान।
आततायी सह सके न कोप,
हुए बलिदानों पर बलिदान।।
कहीं हिंसा का ताण्डव नृत्य,
अहिंसा सत्याग्रह का बार,।
विधर्मी सत्ता थी असहाय,
सहन कर सकी न दोहरी मार।।
और वे चले देश को छोड़,
किन्तु दे गये प्रबल नासूर।
कलह का कारण प्रबल प्रचंड,
देश को खंडित करके क्रूर।।
स्वार्थ परता सत्ता व्यामोह, विखंडित स्वतंत्रता स्वीकार।
रहे प्रतिफल इसका ही भोग,
नहीं कर सकते हम इनकार।।
पंथ निरपेक्ष होगया देश,
दिया हमने सबको सम्मान।
हमारी उदारता की नीति,
और मानवता का कल्याण।।
बोट की राजनीति ने आज,
बढ़ादी सत्ता सुख की प्यास।
भुलाये हमने वे बलिदान,
निठुर यातना और संत्रास।।
विदेशी शासन से भी अधिक,
लूटने लगे स्वयं राजस्व।
विदेशी कोषों को भर दिया,
लूट कर अपना ही सर्वस्व।।
हुआ विस्मृत स्वतंत्रता मूल्य,
नष्ट नैतिकता नरपति नीति।
धनी निर्धन की खाईं बढ़ी,
भोगवादी बढ़ गई अनीति।।
राष्ट्र हित चिंतन का कर त्याग,
बढ़ रहे पराधीनता ओर।
लगे बकने अपशब्द अथोर,
बढ़ रहा देश द्रोह का शोर।।
दलों के दलदल में धस गया,
दिशा से हीन होगया देश।
नाम का लोकतंत्र है शेष,
लोक अब भी असहाय अशेष।।
हुआ सत्ता का अति व्यामोह,
बन गई राजनीति व्यवसाय।
वाद मे बाँट रहे हैं देश,
होरहा जनगण मन असहाय।।
जाति परिवार वाद की बाढ़,
बो रहे सम्प्रदाय की बेल।
कथन कुछ और कार्य कुछ और,
असंगति का यह अद्भुत खेल।।
कृमशः……….।
ज्योती स्वरूप अग्निहोत्री, फर्रुखाबाद