और एक दिन अचानक
यूँ ही हवा में एक दिन
बन गया सम्बन्ध
दोनों खुश थे
दोनों एक दूसरे से अनजान
फिर भी ऐसे लगता था
जैसे बरसों पुरानी हो पहचान;
यहाँ तक कि दोनों एक दूसरे की
सुविधाओं का
समय का
सम्बन्धों का रखने लगे थे ख़्याल
किसी भी तरह का न रहे मलाल
यह सोच कर ले लिया करते
रोजाना
एक दूसरे का हाल-चाल।
बीतने लगे दिन
कटने लगीं रातें
एक दिन अचानक जो
गायब हुआ नेटवर्क
तो तीन दिन तक
न कोई सन्देश
न हाल-चाल का नेटवर्कीय आदेश
और इसी बीच
अंकुरित हुआ संदेह नामक
नवांकुर
और बरगद से निकली
बर्रोह की तरह फैल
अपने नीचे पनप रहे
प्रेम – पौधे को कर दिया शुष्क
और
जैसे गिलोय की लता
अपने अंक में
लपेट सुखा डालती है
आम के पौधों को
सूखने लगे दोनों।
तीसरे, चौथे आदमी
परेशान होने लगे बेवजह
नेटवर्क कई दिनों पहले
बहाल हो गया
ज्यों का त्यों
पर सम्बन्धों की
दुनियाँ को तब तक
लग चुकी थी
नौतपा के सूर्य की धूप
सम्बन्धों को काट चुका था
नेटवर्क का कीड़ा।
दोनों को अब भी होती है
एक दूसरे की परवाह
पर आ जाता है आड़े नेटवर्क
और हसीन वहम
हो जाता है चकनाचूर
दिखते ही लास्ट सीन
ह्वाट्स् एप का
ओह! मेरे लिए समय कहाँ
सोचते दोनों अपने आप
और
कर देते मोबाइल स्विचऑफ!
गलतफहमियों की चद्दर
ओढ़
मन ही मन कुछ बुदबुदाते
सो जाते
हाथ में साथ में
सोती मोबाइल को जगा
देख लेना चाहते फिर से
आया हो शायद कोई मैसेज या कॉल
पर फिर से देख वही हाल
मुंह छिपा गलतफहमियों की चद्दर में पड़ जाते निढाल
एकदम बेहाल
किसी से कुछ भी नहीं कहते
और आखिर में
चुप हो जाते यह सोच कर
शायद
हो कोई मजबूरी
क्योंकि
किसी ने कहा भी है
कुछ तो मजबूरियां रही होंगी
यूं ही कोई बेवफा नहीं होता।
*केशव शुक्ल*
