उस औरत के बारे में

“उस औरत के बारे में”—————————


डॉ आशा सिंह सिकरवार
छंदमुक्त काव्य प्रांगण में डॉ आशा सिंह सिकरवार की लेखिनी स्त्री की समुचित वेदना को स्वर देती जान पड़ रही है। स्त्री उसका संघर्ष, उसकी घुटन उसकी तड़प और इन सब भांवों में घुली उसकी जिजीवषा संवेदना के मूक धरातल पर किसी घँटे की प्रतिध्वनि है।
नारी जीवन की क्षण क्षण की यंत्रणा को जैसे किसी ने शब्द दर शब्द चलचित्र में ढाल दिया हो। यथार्थ के कटु रूप से परिचित कराते शब्द खुद में ही सिहर उठते हो।”उस औरत के बारे में” स्त्री जीवन से लेकर सर्वहारा वर्ग, शोषित दलित, आदिवासी समुदाय, जंगल, जमीन, भूख और पर्यावरण के तमाम मुद्दों पर अपनी बेबाक लेखिनी से न्याय करती है। इस संग्रह में मानव कल्याण से सम्बंधित हर उस विषय पर निर्बाध लेखिनी चली है। विशेषकर नारी और उसके संघर्ष को अपनी लेखिनी के माध्यम से सशक्त अभिव्यक्त मुखर की है।
आशा अपनी लेखिनी में बहुत सूक्ष्मता से अपनी उदगारों को काव्य की कोमल भाव के साथ सरल सहज शब्दों में अभिव्यक्त की है। उनकी यही सहजता मन के हर उस भाव को कागज पर उतारने में सफल रही है। कई रचनाओं में तो ऐसा महसूस होता है कि, वेदना में डूबे आखर बोल ही पड़ेगे। 
“जानती है वह” है कविता में उन्होंने प्रेम के नाम पर छली जा रही स्त्री और उसकी पीड़ा बहुत बारीकी से अभिव्यक्त की है। सामाजिक बंदिशों और परम्परा रीति और वैवाहिक व्यवस्था अनुसाशन के नाम का मुखौटा  को बड़ी साहस से नोच कर उघाड़ दिया है।
उसने प्रेम किया दुनिया से बाहर जाकर वह जाना चाहती थी उसके साथ वह नहीं ले गया अपने साथ अनंत संभावनाओं के बावजूद उसके पास कई तथ्य थे उसे जड़ से ख़ारिज करने के लिए चला गया…
उसे ले गया आकर वह जिसे अब नहीं कर सकती थी प्रेम बस स्टाप पर भरते हुए आखों में इंतजार देर तक देखती रही उसकी पीठ..वह लापता हो गया दोपहर से 
उसे ले जाकर बिठा दिया गया बिलासपुर में पत्थर पर हर दिन छूटते गये चोट के निशान खरोंची जा रही थी आत्मा बटोरे जा रहे थे उसकी देह से झरते पत्ते। इस कविता में प्रेम में छली, रीति रिवाजों के नाम पर छली एक स्त्री के मनोभाव को, उसके जीवन के हर पहलू को शब्दों में ढालकर अपने उसकी  संवेदना से परिचय मूक से मुखर होने की यात्रा है।
कभी प्रेम कभी विवाह कितने रुप उसके ? उतने मुखौटे ? 
दोबारा संसार में प्रवेश निषेध है उसका विरोध में खड़ी है ” सत्ता “
फिर से. . . काटकर फेंक दी जायेगी दिशाओं में, गटर या नालों में 
वह जानती है तुम्हारे नाखूनों और दाँतो के बारे में जानती है तुम्हारी जालसाजी और तिकड़मों के बारे में जानती है ठगहाई और धोंखों के बारे में इस वक्त उसके हाथ में हँसिया है जानती है वह ” फसल के बारे में ” … . . 
“दीवारों के बारे में” कविता में उन अदृश्य दीवारों के बारे में इंगित करती है। जो खींच दी जाती है स्त्री के मन- मष्तिष्क की देहरी पर। जो कभी दिखता तो नही। परन्तु लक्ष्मण रेख की तरह अंकित जरूर हो जाता है। जिसे समय का परिवर्तन भी नही मिटा पाता।
उसने दीवारों के बारे में लिखा एक निबंध 
जिसमें एक चिड़िया थी बिना परो वाली जो आकाश पर नहीं अपने पाँव धूल-धूसरित जमीन पर रखना चाहती थी 
उसने कहीं भी नहीं किया ज़िक्र सीमेंट और गारे के बारे में ईट और रेत के बारे में मिस्त्री और मजदूरों के बारे में 
कहाँ हैं ऐसी अदृश्य दीवारें जिनकी नींव बहुत गहरी हैं 
ये पूरी कविता आपके अंतर को झकझोर देगी। औरत! जीवन की तमाम मोर्चों पर लड़ती कभी रुढ़ी, कभी जबाबदेही, कभी अनचाही जिम्मेदारी तो कभी भूख से जूझती उसकी कोमल काया। बावजूद इन समस्याओं के रहते भी जीवन को लेकर उसकी जिजीवषा मन को ऊर्जा से भर देते है।
“मैं जब भी उससे पूछती थी भूख के बारे में कि वह पहाडों की बात करने लगती है फिर लिखने लगती है भूख पर निबंध इस बार भी उसने कहीं भी रोटी का जिक्र नहीं किया है …”
“यह कैसी लड़ाई है ” में  लोकतंत्र में दफन हो गयी साहूकारी व सामन्तवाद के नए स्वरूप से परिचित ही नही कराती बल्कि इस व्यवस्था के जीवित होने का प्रमाण भी पेश करती है।
करोड़ों की तादाद में अपनी ही धरती से अपने लिए उधार माँगते जमीन बीज रोपने के लिए घिघियाते हुए साहूकारों, सामंती राग में दुनिया के सबसे गरीब बनकर उभरते हैं कागजों पर सालों में रखकर गिरवी 
“पृथ्वी पर बचे रहें उनके चिन्ह ” में शोषित वंचित वर्ग की व्यथा को बखुबी खुद के भीतर महसूस करती हुयी कवियत्री भावविह्वल होकर उनका सूरज बनने की चाह पाल लेती है। उनकी संवेदशीलता इन पंक्तियों के माध्यम से बखूबी समझा जा सकता हैं।
उनके लिए सूरज को अपनी हथेली पर उगाना चाहती हूँ पहुँचना चाहती हूँ उनके अंधेरे में लाल सूरज बनकर महसूस करना चाहती हूँ उनकी हँसी उनकी इच्छाएँ अनछुई अभिलाषाओं को पंख लगते देखना चाहती हूँ उनकी तमाम जरूरतों पर इसके इतर वृक्षों की अन्धधुन्ध कटाई, माता-पिता व उनके संघर्ष, प्रेम, विवशता द्वन्द को मुखर करते उनके भाव मन को आंदोलित करने से नही चूकते है। “पिता” पर लिखी उनकी एक कविता का उद्धरण देना चाहूँगी।”पसीना शिखर से ढरक कर जब धरती में समा गया होगा तब पहली बार बीज रोपा गया होगा तब…. पृथ्वी पर दर्ज हुई होगी पिता की मौजूदगी “कितने दर्द के साथ उकेरा गया है पिता के जीवन चरित को।”पिता के छालों ने पसीने की गंध ने संसार की तखती पर लिख दिया हो गा पिता यूँ पिता ने पिता होने का हक़ अदा किया होगा ।”
जीवन के हर पहलू को शब्दों में ढालकर अपने मनोभाव, एहसास अनुभव का विस्तृत अवलोकन करा जाती है। ऐसी ही एक और कविता है जिसके बिना इस पुस्तक के शीर्षक के साथ न्याय नही होगा।
“पंख वहीं रह गए ” इस कविता में कवियत्री ने हर उस बेटी की पीड़ा को स्वर देने की कोशिश की है। जिन्हें परिवार पालतू पशु से ज्यादा की तवज्जो नही देता।
बाबा, हम जो होतीं तुम्हारे आँगन की भेड़  -बकरियां घर के पिछवाड़े से 

“किसी दिन तुम तंग आकर पोए  -दूपो से बेच आते किसी दूसरे की खूँटी पे बंधने के लिए “
“हम भेड़  – बकरियां नहीं हैं बाबा तुम्हारे शरीर की लाल बूँदें हैं हमजो धूप के स्पर्श से दहक उठती हैं गुलमोहर की तरह “
जो जूझती रहती है पल-पल अपनी विवशताओं की बेड़िया तोड़ने की खातिर। सफल भी हो जाती है। फिर उन्हें पता चलता है जिस आसमान में उड़ने की चाह लिए समाज द्वारा बनाये रिवाजो के सात समन्दर भी लाँघ लिए। किन्तु पंख कहाँ से लाये। वो तो बहुत पहले ही कुतर दिए गए थे हमारी देह से ही नही वरन मन और मष्तिष्क से भी। ये कविता पाठक के पूरे अस्तित्व को झंझोड़ के रख देती है।

एक दिन सारी परम्पराएँ लांघकर इस आसमान में चली आईं लेकिन, हमारे पंख  वहीं रह गए बाबा, तुम्हारे पास 
पर्यावरण के विभिन्न समस्याओं पर भी उनकी कलम खूब चली है। जल, वायु, ध्वनि, नाभिकीय, भूमि तमाम स्तरों पर बढ़ते प्रदूषण के स्तर और खतरों से सावधान करती उनकी रचनायें इस संग्रह को एक अलग मुकाम पर पहुँचती है।कुल मिलाकर देखा जाय तो ये संग्रह काव्य जगत में अभव्यक्ति का एक नया संसार रचती ही नही, समाज और उसके बुनावट की सूक्ष्म विसगतियो से परिचय भी कराती है। रुढियो परम्पराओ के नाम पर सड़न जो स्त्री जीवन की आधार बन गयी है। उसपर करारी चोट भी करती है।

स्त्री जीवन उसकी अदम्य जिजीवष, पर्यावरण, प्रकृति का मानवीकरण, एवं सामाजिक  विद्रुपताओं से उपजा दंश आदि भावों को बड़े बारीकी से प्रतिबिम्बित किया गया है।  अगर आप भी यथार्थ की क्रूरता में जीवन का संघर्ष और जिजीवषा को जीना चाहते है तो इस यथार्थवादी काव्य के सौंदर्य से परिचय करने का विमोह नही त्याग पाएंगे। इसके एक एक शब्द में जीवन की दुरुहताओं की महागाथा अंकित है। वैसे पूरी पुस्कत पर यदि लिखा जाय तो एक और पुस्तक लिखी जा सकती है। मगर यहाँ मैंने उसकी कुछ कविताओं से ही परिचय कराकर उसके मर्म को आप सभी के समक्ष पहुँचाया है।                   

 यथार्थवाद की धरातल पर आपकी लेखिनी काव्य के कोमल स्पर्श द्वारा शोषित, वंचित, सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करती रहे और आपके विचार नये युग में क्रन्तिकारी परिवर्तन लाने में सक्षम व सशक्त बन सके। इसी शुभकामना व मंगलकांक्षाओं के साथ आपके काव्यमय सुनहरे भविष्य की सुगम कामना करते है।
भविष्य में बेहतर लेखन के लिए असीम आत्मीय शुभकामनायें  बहन डॉ आशा सिंह सिकरवार 💐💐💐💐प्रतिमा त्रिपाठीराँची झारखण्ड।

प्रतिमा त्रिपाठी”तिवारी सदन” ऱानी सती मंदिर बाई लेन, नियर मिनाक्षी सिनेमा हॉल बिसाइड sk फैब्रिकस रातू रोड राँची झारखंड (834001)

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