श्रमिक हितैषी कवियों के लिए……जिन्होंने मात्र कलम से घर बैठे दुख हर लिया…

लिख रही हूँ वेदना के छंद, मैं ही बस श्रमिक पर ।
एक केवल पीर मेरे ही हृदय में पल रही है ।
सोचती ,श्रम साधकों का दर्द लिखना ही बहुत है ।
हो द्रवित अंतस न चाहे,क्षुब्ध दिखना ही बहुत है ।
छंद लिखकर सोचती हूँ,आज मैंने तीर मारा ।
किन्तु क्या मुझको पड़ी है,भूख ने किसको पछाड़ा ?
आत्मा उनकी तृषा में जल रही तो जल रही है ।
एक केवल पीर मेरे ही ,हृदय में पल रही……
सच न यह संवेदना है ,शब्द का व्यायाम भर है ।
गीत भी लिखना श्रमिक पर,झूठ का आयाम भर है ।
कारुणिक कुछ छंद लिखकर,वाह की मुझको अपेक्षा ।
रोटियाँ यदि दे न पाई ,व्यर्थ सचमुच यह शुभेच्छा।
कम हुई उनकी व्यथा कब ,जन्म से जो पल रही है ?
एक केवल पीर मेरे ही हृदय में पल रही……
मार्मिक कुछ शब्द लिखती ,और खुद को श्रेष्ठ कहती,
कम हुआ क्या क्लेश उनका,गीत गाने से व्यथा का ?
जब स्वयं बढ कर न आगे,योग कुछ देती श्रमिक को ,
काव्य फिर चाहे रचूं जो,मोल क्या कल्पित कथा का ?
हाँ !महज इतनी हुई कवि ,जीवनी द्रुत चल रही है ।
लिख रही हूँ वेदना के छंद बस मैं ही श्रमिक पर ।
एक केवल पीर मेरे ही हृदय में पल रही है ।
अनु
