बेड़ियों में कसकती हिंदी पत्रकारिता

धर्मेन्द्र चौधरी की कलम से,,,,,

आज तमाम हिंदी पत्रकार हैं। विभिन्न विधाओं पर लिखते हैं। शब्द चयन, संयमित व आसान से समझ में आने वाले वाक्य द्वारा लेख रूपी एक परिकल्पना पाठकों के समक्ष रखते हैं। हिंदी पत्रकार कहलाते हैं। लेकिन हिंदी पत्रकारिता की जनक “उदन्त मार्तण्ड” नामक हिंदी के प्रथम समाचार पत्र के उदय व अस्त होने की गाथा की कहानी किस आधुनिक हिंदी पत्रकार को कचोट पाई? साप्ताहिक पत्रिका मात्र 79 अंक छपने के बाद बंद हो गई। समाचार पत्र के संपादक जुगुल किशोर सुकुल ने काफी संघर्ष व मेहनत कर पत्रिका को जीवंत रखने का प्रयास किया। फारसी, अंग्रेजी व बांग्ला समाचार पत्रों की भीड़ में हिंदी भाषिता के समर्थक व पाठक दबे रहे। कुछ तो डर था। ब्रिटिश सरकार ने हिंदी समाचार पत्र को सभी सरकारी सुविधाओं से वंचित कर दिया। समाचार एकत्रण पत्र प्रसार के लिए डाक सुविधा नहीं मिली। परिणाम यह रहा कि कलकत्ता (कोलकाता) में 30 मई वर्ष 1826 को प्रकाशित ‘उदंत मार्तण्ड’ वर्ष भर में ही बंद हो गया।

आज हिंदी के तमाम समाचार पत्र प्रकाशित हैं। स्थितियां कमोवेश लगभग वहीं हैं। आजादी के पूर्व भी, आजादी के बाद भी। पहले देश को आजाद करने की एक ललक थी। अब देश को सबसे आदर्श बनाने का नाम है। लेकिन दुःखद पहलू यह रहा कि भारतीय हिंदी पत्रकारिता शुरू से निष्पक्षता व आदर्श पत्रकारिता के ऊंचे मुकाम पर नहीं पहुंच पाई। सरकारी बेड़ियों का जकड़ाव तब भी रहा अब भी है। निःसंदेह शब्द, वाक्य व लेख की आधुनिक प्रस्तुति अब पाठकों को आकर्षित कर देती है। लेकिन उस लेख का सार यदा-कदा ही हिंदी के पहले समाचार पत्र के दर्द को छूता नजर आता होगा। सब व्यावसायिक पथ पर हैं। कथित हिंदी पत्रकारिता का आधुनिक झुंड लक्ष्य विहीन सा प्रतीत होता जा रहा है। भारतेंदु हरिश्चंद्र की आधुनिक हिंदी में नव सृजित वाक्य घुसपैठ मचाने की होड़ में हैं। वह वाक्य प्रेरित हो सकते हैं। जिसे हिंदी पत्रकारों को समझने व मनन करने की जरूरत है। ठीक उसी तरह जैसे
” ञ” माने कुछ नहीं क्यों हो गया।

👉आज दिवस लौं उग चुक्यौ मार्तण्ड उदन्त

अस्ताचल को जात है दिनकर दिन अब अन्त।🙏

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Next Post

ख्वाबो के पीछे

Sun May 31 , 2020
ये नैना क्यों अब थक से जाते है….जागते हुए भी ख्वाबो के पीछे क्यों भागते जाते है ?ये नैना अब क्यों थक से जाते है ?क्यों दिनभर ये पलको पर नए ख़्वाब सजाते है ?क्यों सच्ची सी इस दुनियां को बस मिथ्या ही दिखलाते है ?कभी शोर ये मचाते है,कभी […]