गजब के कलम नवीश हैं। का-का लिख देतें हैं। ये क्षम्य नहीं,, वो क्षम्य नहीं! मने अदालत हो गए। सब जजै बने फिरता है, इहां। एक पल हमें भी बोध आया। सोंचा हम भी जजै बन जाएं। क्षम्य नहीं तरह का शोशल मीडिया स्टंट कर दें। कल्पना में शासक बन जाएं। ,,लो अब उस ट्रांस में चले जाएं।,,जा रहे हैं,,,, रसिया के हिप्टोनिसम तरीके से घुस गए,,,। अफासा-गुफासा-नमनमासा। उफ! हियां तो कई पत्रकार नेता व अधिकारियों की चाटूकारिता में जुटे हैं। कल्पना में हमहूं एक ठो प्रेस क्रांफ्रेंस कर रहे हैं। मुंशी प्रेम चंद की रचना ‘नमक का दारोगा’ के थीम की चुड़ैल धर ली है। हम बोले कि कथित पत्रकारों की नेताओं व अधिकारियों की दलाली क्षम्य नहीं। भाव न्यायाधीश टाइप तरह का होने की अनुभूति के अलग ही मजा है। अनुभूति होना चाहिए। अनुभूति का संवैधानिक अधिकार है भई। संविधान का है ? नागरिकता का है? अभिव्यक्ति की आजादी कौन चिरइया का नाम है? पता नहीं! नागरिक के मूल अधिकार व कर्तव्य पता नहीं तो हम का करें? अब हर बात पर मोदी जी मन की बात तो कर नहीं सकते। वर्चुअल वीडियो कांफ्रेंसिंग! हां इसमें कुछ जानकर हो सकते हैं। लेकिन , पल्ले न हमरे निरहू काका के पड़ा न हमके , जो विडियो कान्फ्रेंस का हिस्सा रहे। टुकुर-टुकुर देखे,,,सुनते ही रहे। वास्तविक में। त भाई हम तो कल्पना के गोते में हैं। घण्टों रहे। अभुआ के उठे। फिर कलम डोलाये,,। शीर्षक लिपिबद्ध कर दिए।
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