यायावरी/यात्रा वृतान्त
देव भूमि के आशीष
…अंतिम कड़ी
सातवाँ दिन – वापसी
देवभूमि उत्तराखंड में हरिद्वार के 'हर की पौड़ी' की गंगा आरती से आरम्भ हमारी देवाशीष प्राप्ति की यात्रा तो ऋषिकेश के परमार्थ निकेतन की गंगा आरती पर ही सम्पन्न हो गयी किन्तु वृत्तान्त तो तब ही पूर्ण होता है। जब आप वापस अपने आरम्भ बिन्दु पर पहुँच जाते हैं।
वापसी के लिए हमने प्रातः 7.20 पर ऋषिकेश से यात्रा आरम्भ की। दिल्ली से हवाई यात्रा करनी थी जिसके लिए दो बजे तक पहुँचना आवश्यक था। दिल्ली के सरकारने वाले यातायात को ध्यान में रख, आपको हमेशा अतिरिक्त समय लेकर चलने की आवश्यक्ता होती है। एक बार हम इसमें फंसकर अपनी ट्रेन छुड़ा चुके थे। फिर राह में नाश्ता और भोजन भी करना था। सुबह सुबह श्रीधर का भी फोन आ गया कि वह हवाई अड्डे पर मिलने आएगा। अतः समय हाथ में लेकर चले। सारथी हरीश को भी परिवार से मिलने की जल्दी थी। वह हमें हवाई अड्डे पर छोड़कर करनाल जाना चाहता था।
हम चाय के लिए रुके तबतक मौसम ठीक ठाक था लेकिन थोड़ी ही देर में हल्की बारिश आरम्भ हो गयी।
अब पहली आशंका कि ऐसे में कहीं उड़ान रद्द न हो जाय? लेकिन प्रत्येक कठिनाई के साथ कुछ अच्छाई भी अवश्य आती है। बारिश के कारण सड़क पर यातायात का जमाव कम हो गया और हम निर्धारित समय से काफी पहले दिल्ली पहुँच गये।
हवाई अड्डे पर श्रीधर थोड़ी ही देर में आ गया। अब सुरक्षा कारणों से हम बाहर नहीं निकल सकते थे। शीशे के इस पार हम और उस पार वह। देख पा रहे थे, परन्तु बात करने के लिए फोन का ही सहारा। मन की अवस्था कैसी थी, बता नहीं सकता। उसके आदर भाव से मन सदैव ही आत्मिक प्रसन्नता होती है। ईश्वर उसके अंदर यह दुर्लभ भाव बनाये रखें।
ईश्वर का धन्यवाद कि खराब मौसम के बावजूद उड़ान रद्द नहीं हुई।
अब हमारे पास प्रतीक्षा की लम्बी अवधि थी। बैठा बैठा यात्रा के बारे में सोचने लगा। कौन सी अनुभूति सर्वाधिक प्रभावी रही ? हिमालय पर एकांत के पलों में मैंने यह अनुभव किया कि विचारों में जितनी शुद्धता और सकारात्मकता वहाँ आती है, वह अन्यत्र कहीं नहीं आती। उम्र के इतने वसंत पार करते हुए वह अनुभव पहली बार हुआ। अब विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि सृष्टि के गूढ़ रहस्यों को समझने और जीव जगत के लिए मोक्ष का मार्ग ढूँढने के लिए हमारे पूर्वज हिमालय जाते थे। यह उस स्थान की विशिष्टता ही है कि वहाँ मनुष्य तो मनुष्य, एक श्वान भी अपने व्यवहार से प्रेम की वर्षा करता है।
विचारों की शृंखला टूटती है और उड़नबाज की सवारी के लिए हम कतार में लग जाते हैं।
कल से फिर ऐसी ही कतारों में जीवन उलझ जायेगा परन्तु मन वहीं कहीं अटका रहेगा, साधना की ऊँचाई को अनुभूत करने के लिए।

दो घन्टे की विमान और कार की यात्रा के बाद हम अपने आवास पर थे।