मां चिंतित है

जबकि पूरे विश्व में
समग्र परिवेश में
काल की भाँति विकराल
मुँह बाए
निहार रहा है कोरोना
मांँ- बेटे और पूरे परिवार को।
मांँ चिंतित है
अपने पुत्र के लिए
पुत्रों के इंतज़ार में
काट रही है दिन
मना रही है ईश्वर से
बेटा जहांँ भी हो
उसे बचा लेना मेरे प्रभु!
पिता भी
सूखे जा रहे हैं चिन्ता में
झुँझलाते
फटकारते मां को।
सिसकियां भरती मांँ
आंँखों में आंँसू लिए
दिन-रात घर के काम
निपटाती
आंखों की कोर को
आंँचल से पोंछती
पिता और परिवार
के लोगों के
स्वास्थ्य के ठेकेदार सी
समय-समय पर
उपलब्ध कराती
मुस्कुराते हुए
जलपान भोजन
और दवाई।
अपने बेटे को
साक्षात् देख
लेने के लिए
जिंदगी से
दो चार हाथ करती
माँ
जैसे ही खुद बैठती
भोजन के सामने
निवाला उठाती
मुंँह तक लाती
बरबस ही
आंँखों में छलछला
आते आँसू
और सामने खड़ा बेटा
महसूस होता
मजदूरों की लंबी कतार में
बैग झोला टांँगे
भूख और प्यास की परवाह किए बिना
रात और दिन को भुलाकर
चलता चला
आ रहा हो जैसे
और उसके
आने की उम्मीद में
किसी तरह
अपने बेटे को
साक्षात् देख लेने की
उम्मीद में
पानी की घूँट के साथ
दवा की तरह
भोजन को गले के नीचे
उतारती हुई मां
ढूँढ़ रही है
परदेस से पैदल
चली आ रही कतार में
अपने बेटे को।
ऐन ऐसे वक्त में
जबकि मां
गांँव के डिउहार बाबा ,
काली माई को
और
न जाने किन-किन
देवी देवताओं को
मान रही है मनौती
अपने बेटे के कुशलवत्
लौटआने को घर
वे तलाश रहे हैं
मांँ पर कविताएं
उन्हें मांँ पर कविता चाहिए थी।
और मां अब भी चिंतित है।
-केशव शुक्ल