बिल्कुल ही क्षीण हुईँ जब सम्भावनाएं
कर दी हमने बन्द रोजगार की तलाश
बाहर से घर की ओर चल पड़े
परिवार सहित मन में ले विश्वास
कि अपना घर अपना है रह लेंगे
सह लेंगे घर पर सब भूख और प्यास।
चल पड़े सवारी जो मिली उस से
और कभी पैदल ही
पटरियों किनारे से या नंगे पैर
तपती सडकों पर;
आशंकित होता है मन किन्तु बार-बार
कि महामारी,महामारी का डर
या तपता-झुलसाता जेठ मास
हम में से किसी के सफर का
अन्त ना कर दे अनायास।
जिसने मजदूर को मजबूर किया भागने को
किया जिसने विवश समय पूर्व जागने को
स्थाई नींद में सुलाने की कर कोशिशें तमाम
वही तन्त्र करता है अट्टहास।
अपने गमों,अपने आँसूओं को ले हम खुश हैं
खुश रहो रख खुशियाँ जमाने की
मुल्क के रहनुमाओं तुम अपने आसपास।
-वीरेंद्र प्रधान
शिव नगर,सागर (मध्यप्रदेश)
